संक्षेप में श्री मोरवीनंदन श्री श्याम देव कथा (स्कंद्पुराणोक्त – श्री वेद व्यास जी द्वारा विरचित) !! जय जय मोरवीनंदन, जय श्री श्याम !! !! खाटू वाले बाबा, जय श्री श्याम !!
श्री मोरवीनंदन खाटू श्याम चरित्र” एवं हम सभी श्याम प्रेमियों ‘ का कर्तब्य है कि श्री श्याम प्रभु खाटूवाले की सुकीर्ति एवं यश का गायन भावों के माध्यम से सभी श्री श्याम प्रेमियों के लिए करते रहे, एवं श्री मोरवीनंदन बाबा श्याम की वह शास्त्र सम्मत दिव्यकथा एवं चरित्र सभी श्री श्याम प्रेमियों तक पहुंचे, जिसे स्वयं श्री वेद व्यास जी ने स्कन्द पुराण के “माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड ‘कौमारिक खंड'” में सुविस्तार पूर्वक बहुत ही आलौकिक ढंग से वर्णन किया है… वैसे तो, आज के इस युग में श्री मोरवीनन्दन श्यामधणी श्री खाटूवाले श्याम बाबा का नाम कौन नहीं जानता होगा… आज केवल भारत में ही नहीं अपितु समूचे विश्व के भारतीय परिवार श्री श्याम जी के चमत्कारों को अपने जीवन में प्रत्यक्ष रूप से देख चुके हैं…. आज पुरे भारत के सभी शहरों एवं गावों में श्री श्याम जी से सम्बंधित संस्थाओं द्वारा भजन-कीर्तन कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं… और अपने नाम के अनुरूप ये कलयुग के अवतारी बाबा श्याम जी अपने समस्त भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते है… जो भी व्यक्ति राजस्थान के सीकर जिले में रींगस से १७ किलोमीटर की दुरी पर स्थित श्री खाटूश्याम जी में जाता है…. उसके जीवन के समस्त पाप समाप्त हो जाते हैं, और प्रभु के दर्शन मात्र से उसके जीवन में खुशियाँ एवं सुख शान्ति का भंडार भरना प्रारम्भ हो जाता है |
श्री भगवान के भक्तो की इसी कोटि में पाण्डव कुलभूषण श्री भीमसेन के पोत्र एवं महाबली घटोत्कच के पुत्र, मोरवीनंदन वीर शिरोमणि श्री बर्बरीक भी आते है…
महाबली भीम एवं हिडिम्बा के पुत्र वीर घटोत्कच के शास्त्रार्थ की प्रतियोगिता जीतने पर, इनका विवाह प्रागज्योतिषपुर ( वर्तमान आसाम ) के राजा मूर की पुत्री कामकटंकटा से हुआ… माता कामकटंकटा को “मोरवी” नाम से भी जाना जाता है… वीर घटोत्कच व माता मोरवी को एक पुत्ररतन की प्राप्ति हुई जिसके बाल बब्बर शेर की तरह होने के कारण इनका नाम बर्बरीक रखा गया… ये वही वीर बर्बरीक हैं जिन्हें आज हम खाटू के श्री श्याम, कलयुग के आवतार, श्याम सरकार, तीन बाणधारी, शीश के दानी, खाटू नरेश व अन्य अनगिनत नामों से जानते व मानते हैं…
वीर बर्बरीक के जन्म के पश्चात् महाबली घटोत्कच इन्हें भगवन श्रीकृष्ण के पास द्वारका ले गए और उन्हें देखते ही श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक से यु कहा – “हे पुत्र मोर्वये! पूछो तुम्हे क्या पूछना है, जिस प्रकार मुझे घटोत्कच प्यारा है, उसी प्रकार तुम भी मुझे प्यारे हो…” तत्पश्चात वीर बर्बरीक ने श्री कृष्ण से पूछा – “हे प्रभु! इस जीवन का सर्वोतम उपयोग क्या है…?” वीर बर्बरीक के इस निश्चल प्रश्न को सुनते ही श्री कृष्ण ने कहा – “हे पुत्र, इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग, परोपकार व निर्बल का साथी बनकर सदैव धर्म का साथ देने से है… जिसके लिये तुम्हे बल एवं शक्तियाँ अर्जित करनी पड़ेगी… अतएव तुम महीसागर क्षेत्र (गुप्त क्षेत्र) में नव दुर्गा की आराधना कर शक्तियाँ अर्जन करो..” श्री कृष्ण के इस प्रकार कहने पर, बालक वीर बर्बरीक ने भगवान को प्रणाम किया… एवं श्री कृष्ण ने उनके सरल हृदय को देखकर वीर बर्बरीक को “सुहृदय” नाम से अलंकृत किया….
तत्पश्चात वीर बर्बरीक ने समस्त अस्त्र-शस्त्र विद्या ज्ञान हासिल कर महीसागर क्षेत्र में ३ वर्ष तक नव दुर्गा की आराधना की, सच्ची निष्ठा एवं तप से प्रसन्न होकर भगवती जगदम्बा ने वीर बर्बरीक के सम्मुख प्रकट होकर तीन बाण एवं कई शक्तियाँ प्रदान की, जिससे तीनो लोको में विजय प्राप्त की जा सकती थी… एवं उन्हें “चण्डील” नाम से अलंकृत किया… तत्पश्चात माँ जगदम्बा ने वीर बर्बरीक को उसी क्षेत्र में अपने परम भक्त विजय नामक एक ब्राह्मण की सिद्धि को सम्पुर्ण करवाने का निर्देश देकर अंतर्ध्यान हो गयी… इन्ही वीर बर्बरीक ने पृथ्वी और पाताल के बीच रास्ते में नाग कन्याओं का वरण प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत लिया है… महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने पर वीर बर्बरीक ने अपनी माता के सन्मुख युद्ध में भाग लेने की इच्छा प्रकट की… और तब इनकी माता मोरवी ने इन्हे युद्ध में भाग लेने की आज्ञा इस वचन के साथ दी की तुम युद्ध में हारने वाले पक्ष का साथ निभाओगे… जब वीर बर्बरीक युद्ध में भाग लेने चले तब भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के पहले ही इनको पूर्व जन्म (यक्षराज सुर्यवर्चा) के ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त अल्प श्राप के कारण एवं यह सोचकर कि, यदि वीर बर्बरीक युद्ध में भाग लेंगे तो कौरवों की समाप्ति केवल १८ दिनों में महाभारत युद्ध में नही हो सकती और पांडवो की हार निश्चित रूप हो जायेगी… ऐसा सोचकर श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक का शिरोच्छेदन कर महाभारत युद्ध से वंचित कर दिया… उनके ऐसा करते ही रणभूमि में शोक की लहर दौड़ गयी एवं तत्क्षण रणभूमि में १४ देवियाँ प्रकट हो गयी… एवं रणभूमि में प्रकट हुई १४ देवियों ने वीर बर्बरीक के पूर्व जन्म ( यक्षराज सुर्यवर्चा) को ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त श्राप का रहस्योंघाटन सभी उपस्थित लोगो के समक्ष इस प्रकार किया… देवियों ने कहा : “द्वापरयुग के आरम्भ होने से पूर्व मूर दैत्य के अत्याचारों से व्यथित हो पृथ्वी अपने गौस्वरुप में देव सभा में उपस्थित हो इस प्रकार बोली- “ हे देवगण मैं सभी प्रकार का संताप सहनकरने में सक्षम हूँ… पहाड़, नदी, नाले एवं समस्त मानव जातिका भार मैं सहर्ष सहन करती हुई अपनी दैनिक क्रियाओं का संचालन भली भांति करती रहती हूँ, पर मूर दैत्य के अत्याचारों एवं उसके द्वारा किये जाने वाले अनाचारो से मैं दुखित हूँ,… आप लोग इस दुराचारी से मेरी रक्षा करो, मैं आपकी शरणागत हूँ…” गौस्वरुपा धरा की करूण पुकार सुनकर सारी देवसभा में एकदम सन्नाटा सा छागया… थोड़ी देर के मौन के पश्चात ब्रह्मा जी ने कहा- “अब तो इससे छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय यही है, कि हम सभी को भगवान विष्णु की शरण में चलना चाहिए और पृथ्वी के इस संकट निवारण हेतु उनसे प्रार्थना करनी चाहिए…” तभी देव सभा में विराजमान यक्षराज सूर्य वर्चा ने अपनी ओजस्वी वाणी में कहा -‘ हे देवगण! मूर दैत्य इतना प्रतापी नहीं जिसका संहार केवल विष्णु जी ही कर सकें, हर एक बात के लिए हमें उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए… आप लोग यदि मुझे आज्ञा दे तो मैं स्वयं अकेला ही उसका वध कर सकता हूँ …” इतना सुनते ही ब्रह्मा जी बोले – “नादान! मैं तेरा पराक्रम जानता हूँ , तुमने मिथ्या गर्व के इस देव सभा को चुनौती दी है… इसका दंड तुम्हे अवश्य मिलेगा… आपने आप को विष्णु जी से श्रेष्ठ समझने वाले अज्ञानी ! तुम इस देव सभा से अभी पृथ्वी पर जा गिरोगे … तुम्हारा जन्म राक्षस योनि में होगा, और जब द्वापर युग के अंतिम चरण में पृथ्वी पर एक भीषण धर्म युद्ध होगा तभी तुम्हारा शिरोछेदन स्वयं भगवान विष्णु द्वारा होगा और तुम सदा के लिए राक्षस बने रहोगे…” ब्रह्माजी के इस अभिशाप के साथ ही यक्षराज सूर्यवर्चा का मिथ्या गर्व भी चूर चूर हो गया… वह तत्काल ब्रह्मा जी के चरणों में गिर पड़ा और विनम्र भाव से बोला – “भगवन ! भूलवश निकले इन शब्दों के लिए मुझे क्षमा कर दे… मैं आपकी शरणागत हूँ… त्राहिमाम ! त्राहिमाम ! रक्षा करो प्रभु…” यह सुनकर ब्रह्मा जी में करुण भाव उमड़ पड़े… वह बोले – “वत्स ! तुने अभिमान वश देवसभा का अपमान किया है, इसलिए मैं इस अभिशाप को वापस नहीं ले सकता हूँ, हाँ इसमें संसोधन अवश्य कर सकता हूँ, कि स्वयं भगवन श्रीकृष्ण तुम्हारा शिरोच्छेदन अपने सुदर्शन चक्र से करेंगे, देवियों द्वारा तुम्हारे शीश का अभिसिंचन होगा, फलतः तुम्हे कलयुग में देवताओं के समान पूज्य बनने का वरदान पाने सौभाग्य स्वयं श्रीकृष्ण भगवान से प्राप्त होगा… “ तत्पश्चात भगवान श्रीहरि ने भी इस प्रकार यक्षराज सुर्यवार्चा से कहा – तत्सतथेती तं प्राह केशवो देवसंसदि ! शिरस्ते पूजयिषयन्ति देव्याः पूज्यो भविष्यसि !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.६५) भावार्थ : “उस समय देवताओं की सभा में श्रीहरि ने कहा – हे वीर! ठीक है, तुम्हारे शीश की पूजा होगी, और तुम देव रूप में पूजित होकर प्रसिद्धि पाओगे…” वहाँ उपस्थित सभी लोगो को इतना वृत्तान्त सुनाकर देवी चण्डिका ने पुनः कहा – “अपने अभिशाप को वरदान में परिणिति देख यक्षराज सूर्यवर्चा उस देवसभा से अदृश्य हो गए और कालान्तर में इस पृथ्वी लोक में महाबली भीम के पुत्र घटोत्कच एवं मोरवी के संसर्ग से बर्बरीक के रूप में जन्म लिया… इसलिए आप सभी को इस बात पर कोई शोक नहीं करना चाहिए, और इसमें श्रीकृष्ण का कोई दोष नहीं है…” इत्युक्ते चण्डिका देवी तदा भक्त शिरस्तिव्दम ! अभ्युक्ष्य सुधया शीघ्र मजरं चामरं व्याधात !! यथा राहू शिरस्त्द्वत तच्छिरः प्रणामम तान ! उवाच च दिदृक्षामि तदनुमन्यताम !! ( स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७१,७२) भावार्थ : “ऐसा कहने के बाद चण्डिका देवी ने उस भक्त ( श्री वीर बर्बरीक) के शीश को जल्दी से अमृत से अभ्युक्ष्य (छिड़क) कर राहू के शीश की तरह अजर और अमर बना दिया… और इस नविन जाग्रत शीश ने उन सबको प्रणाम किया… और कहा कि, “मैं युद्ध देखना चाहता हूँ, आप लोग इसकी स्वीकृति दीजिए…” ततः कृष्णो वच: प्राह मेघगम्भीरवाक् प्रभु: ! यावन्मही स नक्षत्र याव्च्चंद्रदिवाकरौ ! तावत्वं सर्वलोकानां वत्स! पूज्यो भविष्यसि !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.७३,७४) भावार्थ : ततपश्चात मेघ के समान गम्भीरभाषी प्रभु श्री कृष्ण ने कहा : ” हे वत्स ! जब तक यह पृथ्वी नक्षत्र सहित है, और जब तक सूर्य चन्द्रमा है,तब तक तुम सब लोगो के लिए पूजनीय होओगे… देवी लोकेषु सर्वेषु देवी वद विचरिष्यसि ! स्वभक्तानां च लोकेषु देवीनां दास्यसे स्थितिम !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.७५,७६) भावार्थ : “तुम सैदव देवियों के स्थानों में देवियों के समान विचरते रहोगे…और अपने भक्तगणों के समुदाय में कुल देवियो की मर्यादा जैसी है, वैसी ही बनाई रखोगे…” बालानां ये भविष्यन्ति वातपित्त क्फोद्बवा: ! पिटकास्ता: सूखेनैव शमयिष्यसि पूजनात !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.७७ ) भावार्थ : “तुम्हारे बालरुपी भक्तों के जो वात पित्त कफ से पिटक रोग होंगे, उनको पूजा पाकर बड़ी सरलता से मिटाओगे…” इदं च श्रृंग मारुह्य पश्य युद्धं यथा भवेत ! इत्युक्ते वासुदेवन देव्योथाम्बरमा विशन !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.७८ ) भावार्थ : “और इस पर्वत की चोटी पर चढ़कर जैसे युद्ध होता है, उसे देखो… इस भांति वासुदेव श्री कृष्ण के कहने पर सब देवियाँ आकाश में अन्तर्धान कर गई…” बर्बरीक शिरश्चैव गिरीश्रृंगमबाप तत् ! देहस्य भूमि संस्काराश्चाभवशिरसो नहि ! ततो युद्धं म्हाद्भुत कुरु पाण्डव सेनयो: !! ( स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.७९,८०) भावार्थ : “बर्बरीक जी का शीश पर्वत की चोटी पर पहुँच गया एवं बर्बरीक जी के धड़ को शास्त्रीय विधि से अंतिम संस्कार कर दिया गया पर शीश की नहीं किया गया ( क्योकि शीश देव रूप में परिणत हो गया था)… उसके वाद कौरव और पाण्डव सेना में भयंकर युद्ध हुआ…
योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को रणभूमि में प्रकट हुई १४ देवियों ( सिद्ध, अम्बिका, कपाली, तारा, भानेश्वरी, चर्ची, एकबीरा, भूताम्बिका, सिद्धि, त्रेपुरा, चंडी, योगेश्वरी, त्रिलोकी, जेत्रा) के द्वारा अमृत से सिंचित करवा कर उस शीश को देवत्व प्रदान करके अजर अमर कर दिया… एवं भगवान श्रीकृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को कलियुग में देव रूप में पूजित होकर भक्तों की मनोकामनाओ को पूर्ण करने का वरदान दिया… वीर बर्बरीक ने भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष महाभारत के युद्ध देखने की अपनी प्रबल इच्छा को बताया जिसे श्रीकृष्ण ने वीर बर्बरीक के देवत्व प्राप्त शीश को ऊंचे पर्वत पर रखकर पूर्ण की… एवं उनके धड़ का अंतिम संस्कार शास्त्रोक्त विधि से सम्पूर्ण करवाया… महाभारत क युद्ध समाप्ति पर महाबली श्री भीमसेन को यह अभिमान हो गया कि, यह महाभारत का युद्ध केवल उनके पराक्रम से जीता गया है, तब श्री अर्जुन ने कहा कि, वीर बर्बरीक के शीश से पूछा जाये की उसने इस युद्ध में किसका पराक्रम देखा है…. तब वीर बर्बरीक के शीश ने महाबली श्री भीमसेन का मान मर्दन करते हुए उत्तर दिया की यह युद्ध केवल भगवान श्री कृष्ण की निति के कारण जीता गया…. और इस युद्ध में केवल भगवान श्री कृष्ण का सुदर्शन चक्र चलता था, अन्यत्र कुछ भी नहीं था… वीर बर्बरीक के द्वारा ऐसा कहते ही समस्त नभ मंडल उद्भाषित हो उठा… एवं उस देव स्वरुप शीश पर पुष्प की वर्षा होने लगी… देवताओं की दुदुम्भिया बज उठी… तत्पश्चात भगवान श्री कृष्ण ने पुनः वीर बर्बरीक के शीश को प्रणाम करते हुए कहा – “हे वीर बर्बरीक आप कलिकाल में सर्वत्र पूजित होकर अपने सभी भक्तो के अभीष्ट कार्य को पूर्ण करोगे… अतएव आपको इस क्षेत्र का त्याग नहीं करना चाहिये, हम लोगो से जो भी अपराध हो गए हो, उन्हें कृपा कर क्षमा कीजिये” इतना सुनते ही पाण्डव सेना में हर्ष की लहर दौड गयी… सैनिको ने पवित्र तीर्थो के जल से शीश को पुनः सिंचित किया और अपनी विजय ध्वजाएँ शीश के समीप फहराई… इस दिन सभी ने महाभारत का विजय पर्व धूमधाम से मनाया…
आज यह सच हम अपनी आखों से देख रहे हैं की उस युग के बर्बरीक आज के युग के श्री श्याम जी ही हैं… आज भी श्री श्याम बाबा के प्रेमी दूर दूर से आकर श्याम ध्वजाएँ बाबा श्याम जी को अर्पण करते है… कलयुग के समस्त प्राणी श्री श्याम जी के दर्शन मात्र से सुखी हो जाते हैं… उनके जीवन में खुशिओं और सम्पदाओ की बहार आने लगती है… और श्री खाटू श्याम जी को निरंतर भजने से प्राणी सब प्रकार के सुख पाता है और अंत में मोक्ष को प्राप्त हो जाता है… ऐसे पराक्रमी, परम दयालु, दानवीर, हारे के सहारे, वीर बर्बरीक जी (जिन्हें अब हम सभी बाबा श्याम के नाम से जानते है), की पावन कथा हमारे पवित्र सनातन धर्म के वेदव्यास जी द्वारा रचित “स्कन्द पुराण” में भी वर्णित है… स्कन्द पुराण जिसे कि एक शतकोटि पुराण कहा गया है, और जो इक्यासी हजार श्लोकों से युक्त है, एवं इसमें सात खण्ड है… पहले खण्ड का नाम माहेश्वर खण्ड है, दूसरा वैष्णवखण्ड है, तीसरा ब्रह्मखण्ड है, चौथा काशीखण्ड एवं पांचवाँ अवन्तीखण्ड है, फिर क्रमश: नागर खण्ड एवं प्रभास खण्ड है… वीरवर मोरवीनंदन श्री बर्बरीक जी का चरित्र स्कन्द पुराण के “माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड ‘कौमारिक खंड'” में सुविस्तार पूर्वक दिया हुआ है.. यह पुराण कलेवर की दृष्टि से सबसे बड़ा है, तथा इसमें लौकिक और पारलौकिक ज्ञान के अनन्त उपदेश भरे हैं… इसमें धर्म, सदाचार, योग, ज्ञान तथा भक्ति के सुन्दर विवेचन के साथ देवताओं, अनेकों वीर पुरुषो और साधु-महात्माओं के सुन्दर चरित्र पिरोये गये हैं….आज भी इसमें वर्णित आचारों, पद्धतियों के दर्शन हिन्दू समाज के घर-घरमें किये जा सकते हैं… ऋषि वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण में “माहेश्वर खंड के द्वितीय उपखंड कौमरिका खंड” के ६६ वें अध्याय के ११५वे एवं ११६वे श्लोक में इनकी स्तुति इस आलौकिक स्त्रोत्र से की है, जिसे पढ़ने और सुनने मात्र से ही समस्त भयो का नाश हो जाता है, और श्री मोरवीनंदन बाबा श्याम की करुण कृपा प्राप्त होती है… आइये हम सब भी इस आलौकिक स्त्रोत्र से श्री श्याम देव की स्तुति करे…. !! स्कन्दपुराणोक्त श्री श्याम देव स्त्रोत्र !! जय जय चतुरशितिकोटिपरिवार सुर्यवर्चाभिधान यक्षराज जय भूभारहरणप्रवृत लघुशाप प्राप्तनैऋतयोनिसम्भव जय कामकंटकटाकुक्षि राजहंस जय घटोत्कचानन्दवर्धन बर्बरीकाभिधान जय कृष्णोपदिष्ट श्रीगुप्तक्षेत्रदेवीसमाराधन प्राप्तातुलवीर्यं जय विजयसिद्धिदायक जय पिंगल रेपलेंद्र दुहद्रुहा नवकोटीश्वर पलाशिदावानल जय भुपालान्तराले नागकन्या परिहारक जय श्रीभीममानमर्दन जय सकलकौरवसेनावधमुहूर्तप्रवृत जय श्रीकृष्ण वरलब्धसर्ववरप्रदानसामर्थ्य जय जय कलिकालवन्दित नमो नमस्ते पाहि पाहिती !! स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.११५ !! !! उपरोक्त स्त्रोत्र का हिंदी भावार्थ !! “हे! चौरासी कोटि परिवार वाले सूर्यवर्चस नाम के धनाध्यक्ष भगवन्! आपकी जय हो, जय हो…” “हे! पृथ्वी के भार को हटाने में उत्साही, तथा थोड़े से शाप पाने के कारण राक्षस नाम की देवयोनि में जन्म लेने वाले भगवन्! आपकी जय हो, जय हो…” “हे! कामकटंककटा (मोरवी) माता की कोख के राजहंस भगवन्! आपकी जय हो, जय हो…” “हे! घटोत्कच पिता के आनंद बढ़ाने वाले बर्बरीक जी के नाम से सुप्रसिद्ध देव! आपकी जय हो, जय हो…” “हे! श्री कृष्णजी के उपदेश से श्री गुप्तक्षेत्र में देवियों की आराधना से अतुलित बल पाने वाले भगवन्! आपकी जय हो, जय हो…” “हे! विजय विप्र को सिद्धि दिलाने वाले वीर! आपकी जय हो, जय हो…” “हे! पिंगला- रेपलेंद्र- दुहद्रुहा तथा नौ कोटि मांसभक्षी पलासी राक्षसों के जंगलरूपी समूह को अग्नि की भांति भस्म करने वाले भगवन्! आपकी जय हो, जय हो…” “हे! पृथ्वी और पाताल के बीच रास्ते में नाग कन्याओं का वरण प्रस्ताव ठुकराने वाले माहात्मन्! आपकी जय हो, जय हो…” “हे! श्री भीमसेन के मान को मर्दन करने वाले भगवन्! आपकी जय हो, जय हो…” “हे! कौरवों की सेना को दो घड़ी ( ४८ मिनट) में नाश कर देने वाले उत्साही महावीर! आपकी जय हो, जय हो…” “हे! श्री कृष्ण भगवान के वरदान के द्वारा सब कामनाओं के पूर्ण करने का सामर्थ्य पाने वाले वीरवर! आपकी जय हो, जय हो…” “हे! कलिकाल में सर्वत्र पूजित देव! आपको बारम्बार नमस्कार हैं, नमस्कार है, नमस्कार है…” “हमारी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये” अनेन य: सुहृदयं श्रावणेsभ्य्चर्य दर्शके! वैशाखे च त्रयोदशयां कृष्णपक्षे द्विजोत्मा: शतदीपै पुरिकाभि: संस्तवेत्तस्य तुष्यति !! स्कन्दपुराण, कौ. ख. ६६.११६ !! “जो भक्त कृष्णपक्ष की श्रवणनक्षत्र युक्त अमावस्या (जो प्रायः फाल्गुन मास में आती है) के तेरहवे [१३वे] दिन अर्थात “फाल्गुन सुदी द्वादशी” के दिन तथा विशाखानक्षत्र युक्त अमावस्या (जो प्रायः कार्तिक मास में आती है) के तेरहवे [१३वे] दिन अर्थात “कार्तिक सुदी द्वादशी” के दिन अनेक तपे हुए अँगारों से सिकी हुई पुरिकाओ के चूर्ण (घृत, शक्करयुक्त चूरमा) से श्री श्याम जी की पूजा कर इस स्त्रोत्र से स्तुति करते है, उस पर श्री श्याम जी अति प्रसन्न होकर मनोवांछित फल प्रदान करते है… ” ——————————- अंततः, आप सभी श्याम प्रेमियों एवं भक्तवृंदो के श्री चरणों में मेरा प्रणाम है… स्वयं योगेश्वर भगवन श्री कृष्ण एवं भगवती श्री आदिशक्ति माँ जगदम्बा जिनके आराध्य है, उन श्री मोरवीनंदन श्री श्याम जी के श्री चरणों में प्रणाम हैं… महाबीर सराफ ‘टीकम’ !! जय जय मोरवीनंदन,